
नई दिल्ली/भारत   7440
🕉️ पर्व विशेष -- 🌹
सबसे बड़ी पूर्णिमा है गुरु पूर्णिमा
डॉ. अशोक पाण्डेय
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गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु गुरुर्देवो महेश्वरः।
गुरुः साक्षात परब्रह्म तस्मै श्री गुरवे नमः ।।
आज आषाढ़ शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि है। यह सबसे बड़ी पूर्णिमा मानी जाती है । क्योंकि यह परमात्मा के ज्ञान, ध्यान और प्रीति की तरफ ले जाती है । यह सद्गुरु के पूजन का पर्व है , गुरु के अंतः करण में जो परब्रह्म परमात्मा हैं उनके प्रति समर्पण है।
वेदों का विस्तार करने वाले वेद व्यास जी के नाम से ही आषाढ़ शुक्ल पूर्णिमा का नाम ' व्यास पूर्णिमा ' पड़ा है।इसीलिए ' व्यासोच्छिष्टं जगत्सर्वम् ' कहा गया है । इन्होंने पूरी मानव जाति को कल्याण का मार्ग दिया ।
भारतीय वांग्मय में गुरु को सर्वप्रथम माना गया है। समस्त देवताओं में गुरु को परम ब्रह्म की संज्ञा दी गई है। जिस प्रकार से ज्ञान -विज्ञान के बिना मोक्ष नहीं हो सकता, उसी तरह अच्छे गुरु से संबंध हुए बिना ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती।
गुरु का सीधा अर्थ है, जो हमारे लिए मार्ग प्रशस्त करता है । हमें इस जीवन रूपी यात्रा में ऐसे मार्ग दिखाता है, जो हमें सत् कर्मों के साथ सावधानीपूर्वक चलते हुए अपने निर्धारित लक्ष्य की ओर अग्रसर कराता है । क्योंकि गुरु द्वारा दिया गया ज्ञान उस नाव के समान है , जिसे पाकर मनुष्य संसार रूपी भवसागर से पार होकर धन्य हो जाता है।
सनातन धर्म में गुरु शिष्य की परंपरा अनंत काल से चली आ रही है । रामायण युग हो, महाभारत युग या कलयुग बड़े-बड़े राजाओं ने गुरु से शिक्षा तथा शास्त्र और शस्त्र विद्या का ज्ञान प्राप्त कर अपने जीवन को धन्य किया है ।
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस के प्रारंभ में ही गुरु की वंदना की है ।
बंदउं गुरु पद कंज कृपा सिंधु नर रूप हरि।
महा मोह तम पुंज जासु बचन रविकर निकर।।
बंदउं गुरु पद पदुम परागा ।
सुरुचि सुबास सरस अनुरागा।।
यानि मैं ज्ञान का प्रकाश देकर सन्मार्ग पर ले जाने वाले सद्गुरु के चरण कमल की धूल को प्रणाम करता हूं । जो अच्छी रुचि और प्रेम को उत्पन्न करने वाली, सुगंधित और सार सहित है। वास्तव में चरण रज में चैतन्य- वृत्ति ऊर्जा रूप में स्वतः समाहित रहती है। यही चैतन्य- वृत्ति सार है । जो पुरुष इन गुणों वाले होते हैं उनमें यह ऊर्जा के रूप में विशेष गुणों को धारण किए रहती है । योगी ज्ञानी और पवित्र आत्मा रूपी गुरु स्वतः ही प्रेम उत्पन्न कराता है ।
तुलसीदास ने यह भी लिखा है -
श्री गुरु चरन सरोज रज निज मनु मुकुरु सुधारि।
बरनउं रघुबर बिमल जसु जो दायकु फल चारि।।
यानि गुरु के चरण कमल की धूल से अपने मन रूपी दर्पण को स्वच्छ कर भगवान श्री रामचंद्र जी के पवित्र यश का वर्णन करता हूं । जो धर्म, अर्थ ,काम और मोक्ष को देने वाले हैं ।
वैसे गुरु शब्द की व्याख्या कई रूप में की गई है।
शिष्य के कानों में ज्ञानरूपी अमृत का जो सिंचन करता है वह गुरु है ।
अपने अच्छे उपदेशों के माध्यम से शिष्य के अज्ञान रूपी अंधकार को नष्ट कर देता है, वह गुरु है ।
जो शिष्य के प्रति धर्म आदि ज्ञातव्य तत्वों का उपदेश करता है, वह गुरु है ।
जो वेद आदि शास्त्रों के रहस्य को समझा दे वह गुरु है।
भगवान श्रीराम भी गुरु के द्वार पर जाते थे और माता-पिता तथा गुरुदेव के चरणों में विनय पूर्वक नमन करते थे । तुलसीदास जी ने लिखा है-
प्रात काल उठि के रघुनाथा। मातु पिता गुरु नावहिं माथा।।
वैसे तो देवताओं के गुरु के रूप में बृहस्पति को प्रतिष्ठित किया गया है ।गुरु शब्द का यह भी अर्थ है, कि जिनमें गंभीरता हो । किसी भी बात को गहराई से जो समझे ।अपने शिष्यों को उचित मार्ग पर ले जाने पर ध्यान दें। यानि इनमें चंचलता का सर्वथा अभाव रहता है। कारण यह कि मन का स्वभाव है, चंचल होना और चंचल मन से ज्ञान प्राप्त करने में कठिनाइयां आती हैं। इससे एकाग्रता भंग होती है। अतः मन को नियंत्रित कराने का कार्य गुरु का होता है।
महर्षि याज्ञवल्क्य ने गुरु के महत्व पर विशेष ध्यान दिया है ।उपनयन विधि संपन्न हो जाने पर गुरु अपने शिष्य को भू ,भुवः, स्वः का उच्चारण करा कर वेद अध्ययन ,दंत धावन तथा स्नान आदि द्वारा शुद्धता के नियमों को सिखाने के साथ ,शिष्य के हित के लिए आचार - व्यवहार की शिक्षा देते थे ।
प्रायः लोगों के गुरु अलग-अलग होते थे लेकिन श्री भगवान तो सभी के गुरु हैं। वह लोक पितामह ब्रह्माजी के भी गुरु हैं। योग दर्शन के अनुसार पूर्वेशामपि गुरुः कालेनानवच्छेदात।।
श्री भगवान को गुरु तम गुरु माना गया ऐसे सद्गुरू नारायण को बार-बार प्रणाम करते हुए कहा गया है -
कृष्णं वंदे जगद्गुरुम् ।।
बिना योग्य दिशा - निर्देशक की सहायता लिए निर्धारित लक्ष्य पर नहीं पहुंचा जा सकता है । महात्मा गौतम बुद्ध भी ज्ञान प्राप्त करने के लिए कई स्थानों पर भटके, लेकिन उनको कहीं समाधान नहीं मिला । हर जीव की आत्मा में ईश्वर अंश रूप में विद्यमान रहते हैं अतः कभी-कभी शुद्ध अंतःकरण भी आपको विलक्षण ज्ञान दे जाता है । यही सद् मार्ग भी देता है।
सभी लोग जानते हैं कि संत कबीर दास को गुरु की प्राप्ति में कितनी कठिनाई हुई थी ।उन्हें यह मालूम था कि बिना गुरु के उचित दिशा प्राप्त करना बहुत कठिन होगा। उन्होंने गुरु की महिमा का बहुत बखान किया है
कुमति कीच चेला भरा,
गुरु ज्ञान जल होय।
जनम-जनम का मोरचा,
पल में डारे धोय।।
यानि शिष्य कुबुद्धि रूपी कीचड़ से भरा है , लेकिन गुरु का ज्ञान उस जल के समान है ,जो शिष्यों के अज्ञानता रूपी कीचड़ को पल भर में दूर कर देता है । उन्होंने आगे कहा है-
गुरु कुम्हार शिष कुंभ है, गढ़ि- गढ़ि काढ़ै खोट ।
अंतर हाथ सहार दै , बाहर बाहै चोट।
शिष्य मिट्टी के उस कच्चे बर्तन के समान होता है, जिसे बनाने वाला अंदर से सहारा देकर और बाहर से चोट देकर एक सुंदर स्वरूप देता है । ठीक उसी तरह गुरु भी शिष्य को आंतरिक रूप से मजबूत करते हुए, उसकी बाहरी समस्त बुराइयों को नष्ट करने का कार्य करते हैं । वैसे तो गुरु की महिमा अपार और अनंत है । शब्दों में इन्हें बांधना बहुत कठिन है।
सर्वप्रथम जब बच्चे का जन्म होता है तो मां उसे जीना सिखाती है तो प्रथम गुरु मां हुई फिर दूसरे गुरु के रूप में उसके पिता होते हैं, जो उसे जीवन रूपी यात्रा में अनुभव देते हैं। कहा गया है -
हरि रूठे गुरु ठौर है, गुरु रूठे नहिं ठौर।
भगवान रूठ जाए तो गुरु सहारा दे देते हैं , लेकिन यदि गुरु रूठ गए तो कोई सहारा नहीं देगा।
गुरु गोविंद दोऊ खड़े काके लागूं पांय ,बलिहारी गुरु आपनो गोविंद दियो बताय। यहां भी गुरु को सबसे अधिक महत्व दिया गया , क्योंकि ईश्वर तक जाने का मार्ग तो गुरु ने ही दिखाया है ।
आप सभी के ईष्ट और गुरु का आप पर स्नेह और आशीर्वाद बना रहे। इस अवसर विशेष पर हार्दिक शुभकामनाएं!!
© @Ashok Pandey
[लेखक वैदिक ज्योतिष के ज्ञाता एवं आध्यात्मिक विचारक हैं] ...
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